उठते-बैठते पल-प्रतिपल जब
हर बात में,
देने लगें अपने ही ताने,
तब छलनी हो उठता है
मार्मिक मन...
छोटी-छोटी प्यारी-प्यारी
मधुर मुस्कान,
पुलकित क्षणिक सच
की बात में,
निकल घर के झरोखे से
झांकती है कोंपल हटा
झरोखों से झूलते...
भटकती है, इधर-उधर
चंहु ओर मगर,
फिर लौट आती है
अपने मन की हर आस को
उसके भीतर छिपाए एहसास को
लिए उसी अपने नन्हे छुपे मन से भीतर...
व्याकुलता बसी रहती है अंतस मे,
पीड़ा छलकती प्रतिपल बस उससे,
मन पर किए गए हैं वार,
अनेकों बार..
क्षत-विक्षत मन कातर करुण
करता है क्रंदन और पुकार
पुकारता है तुझे बार-बार...
मन जो इतना नन्हा बच्चा है,
जिसे बार-बार सबने ही छला है,
बस खिलौनों का स्वरुप बदला गया है,
पर कृत्य तो सबने एक सा ही किया है...
झिंझोड़ा है, झंझावातों में भी जो नही डिगता,
नोचा है, काँटों से भी जो नहीं डरता,
फ़ेंक डाला है तोड़-मरोड़कर जाने किस
कोटर की खोह मे, जिसे खोजना असंभव प्रतीत है...
पीड़ा ये अंतर्मन की,
व्यथा है मार्मिक मन की...