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मंगलवार, 16 नवंबर 2010

लफ्ज़

मेरी पूंजी है
यही लफ्ज़,
यही थोड़े से लफ्ज़,
मुफ्त का
माल समझकर
हम लुटाते रहे,
इस बेपनाह दौलत को,
जिस तसव्व्रुर के लिए
एक ही लफ्ज़ बहुत था,
उसे सौ लफ्ज़ दिए,


मैं एक शायर की
आवारा शायरी थी,
मुझको ये फिक्र न थी,
मुझको ये मालूम न था,
लफ्ज़ भी घिसते हैं,
मिटते हैं,
बिखर जाते हैं,
लफ्ज़ बीमार भी पड़ते हैं,
और एक रोज़ लफ्ज़ भी
हमारी आपकी तरह
मर जाते हैं,


मुझको मालूम न था,
की हर एक लफ्ज़ को
सदियों ने संवारा होगा,
ये जो आये हैं,
इन्हें कितनो ने
पुकारा होगा,
मैं लुटाती रही
इस बेपनाह दौलत को,
और जबकि
ज़माने के लिए,
बताने को मेरे दिल में
कई किस्से हैं,
कई बातें हैं,
हैरान देखती हूँ,
मैं मेरे पास
कोई लफ्ज़ नहीं!!!

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