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बुधवार, 10 मार्च 2010

टूटके बिखर जाते तो अच्छा था.......
राहों पे निकल गए ये क्या बात है,
राहों में बिखर जाते तो अच्छा था ......
बेदिली से मुस्कुरातें हैं आज हम,
दिल को यूं न बहलाते तो अच्छा था......
रन्जो गम के बन गए हैं अब हम,
बाशिंदे यूं दिल ही न किसी से लगाते तो अच्छा था......
मुस्कुराहटों का उन के होंठों न आना जला गया हमें यूं
कि उनके पास हम ना जाते तो अच्छा था......
मैंने देखी हैं कुछ सच्चाई है तेरी आँखों में,
मैंने देखी है कुछ नाराजगी सी तेरी आँखों में,
मैंने देखें हैं कुछ टूटे किरचे बिखरे काँच के,
मैंने देखें हैं रात भर जागती आँखों में फिर भी सपने हैं,
मैंने चाहा है हर पल उन सपनो को अपनो की तरह,
सजा के रखना अपने माथे पे, छुपा के रखना अपने आँचल में,
हर लफ्ज जो तुम कह भी न पाओ उन्हें महसूस करने की ख्वाहिश लिए बैठे हैं,
आपकी आँखों के उठती चिल्मन का दीदार लिए बैठें हैं
हर आह जो एक ख़ास पल की है, एक नयी आस की है,
मीर मेरे, मेरे माही, मेरे हमराज़ बन,
तुझमें ख़ाक हो जाने की तमन्ना ख़ास लिए बैठें हैं!!

मंगलवार, 2 मार्च 2010

"अहमियत शब्दों की"

यू तो बहुत हैं बातें कहने की मगर किससे कहें हम,
कब तक खामोश रहें और यू ही सहते रहे हम,
नहीं किसी और की नहीं; अपनी ही अंतरदशा की कहानी,
सुनने में लगेगी अजीब-अकेली-अनजानी...

मालूम न थी मुझे शब्दों की ये अहमियत,
बाद एक मुद्दत के समझ पाई मै इसकी हकीकत,
और शायद यह हकीकत ही भारी पड़ गयी मुझपर,
कहना था जो किसी से कह न सके अपनी जिन्दगी भर,